जातकर्म संस्कार: नवजात शिशु के लिए स्वागत और आशीर्वाद
हिंदू धर्म में जातकर्म संस्कार नवजात शिशु के जन्म के बाद किया जाने वाला पहला संस्कार है। यह सोलह संस्कारों में से चौथा संस्कार माना जाता है। इसका उद्देश्य नवजात शिशु का स्वागत करना, उसका शरीर शुद्ध करना और उसके भविष्य के लिए आशीर्वाद देना होता है।
महत्व
- जातकर्म संस्कार का शिशु के शारीरिक और आध्यात्मिक दोनों तरह के कल्याण के लिए महत्वपूर्ण माना जाता है। ऐसा माना जाता है कि यह संस्कार:
- माता के गर्भ में शिशु को रस ग्रहण से हुए किसी भी दोष को दूर करता है।
- शिशु की रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाता है।
- शिशु को बुद्धिमान, बलवान और दीर्घायु बनाता है।
- शिशु के जीवन में सकारात्मक ऊर्जा का संचार करता है।
विधि
जातकर्म संस्कार एक सरल अनुष्ठान है, जिसे आम तौर पर जन्म के कुछ ही दिनों बाद किया जाता है। इसमें निम्नलिखित कदम शामिल हो सकते हैं:
- स्नान: शिशु को जन्म के बाद नाभी काटने के पश्चात् स्नान कराया जाता है।
- शहद और घृत ग्रहण: सोने या चांदी की कटोरी में थोड़ा सा शहद और घृत मिलाकर शिशु को चटाया जाता है।
- मंत्रोच्चार: पंडित या कोई विद्वान व्यक्ति शिशु के कल्याण के लिए वैदिक मंत्रों का उच्चार करता है।
- यज्ञ: यज्ञ नामक अग्नि अनुष्ठान किया जा सकता है, जिसमें आहुतियाँ दी जाती हैं।
- स्तनपान: माता शिशु को स्तनपान कराती है, जो मातृत्व और शिशु के पोषण का प्रतीक है।
आज का जातकर्म संस्कार
आधुनिक समय में जातकर्म संस्कार उसी तरह से नहीं किया जाता है जैसा प्राचीन काल में किया जाता था। कई परिवार अब अस्पताल के वातावरण को देखते हुए स्नान जैसे कुछ अनुष्ठानों को संशोधित करते हैं। वहीं, शहद और घृत चटाने तथा मंत्रोच्चार का प्रचलन आज भी कई जगहों पर किया जाता है।
अंत में
जातकर्म संस्कार नवजात शिशु के जीवन में एक शुभ शुरुआत का प्रतीक है। यह शिशु के स्वागत और उसके मंगलमय जीवन की कामना का एक पारंपरिक तरीका है।
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आचार्य प्रशांत दाश (संयुक्त सचिव, आर्य समाज भुवनेश्वर)
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